रविवार, 11 जुलाई 2010

भोर

जिला स्तर के गांव में प्रेक्टिस करने का अपना ही आनंद है, एक अनोखा अनुभव है। रोगी से यदि ये कहें कि मैं एक सर्जन हूँ तथा केवल ऑपरेशन संबंधित रोगी ही देखूँगा, तो फिर बेहतर होगा कि घर बैठें, कर चुके प्रेक्टिस। यह संभव ही नहीं। शहर में भी विशेषज्ञ डॉक्टरों के आने से पूर्व चिकित्सा का एक मिला-जुला रूप ही था, जिस से प्रेक्टिस चलती थी । शहरों में जागरूकता बढ़ गई है तथा अब वे जानते हैं कि फलां रोग के लिए फलां विशेषज्ञ और फलां के लिए फलां ।

सच तो यह कि, एक समय फैमिली डॉक्टर, यह परिवार का डॉक्टर काका हुआ करता था। वह सिर्फ चिकित्सा ही नहीं, परिवार की अनेक समस्याओं का निदान भी करता था। हर छोटे-बड़े मसलों में उस की उपस्थिति अनिवार्य थी। फिर चाहे वह लड़की की शादी हो, लड़के का मुंडन या पारिवारिक कलह संबंधित समस्या। बच्चे को गुल्ली-डंडा खेलते गली में देख लिया तो सीधा कान से पकड़ कर डाँटना कि ’परीक्षा सिर पर है और तुम गुल्ली - डंडा खेल रहे हो’ फिर पीठ पर धौल जमा कर घर भेजना। ऊपर से यह कि बच्चा घर पर डॉक्टर काका के ख़िलाफ़ कुछ कहे तो घर पर ज़्यादा मार खाये। ’डॉक्टर काका’ अपने रोगी को गुल्ली-डंडा खेलते हुए देखने से लेकर जब रोगी का पुत्र भी गली में वो ही खेल खेलने लगता है, तब तक की सारी जानकारी रखता है। रोगी की पारिवारिक, शारीरिक, मानसिक तथा और अन्य सलाहों के साथ साथ उस के बचपन से लेकर अब तक की सारी बीमारियों का चिट्ठा भी वह अपनी स्मृति में रखता है। काल के अंधकार में अब वे ’डॉक्टर काका’ खो गये, अब उस की जगह ’डॉक्टर साहब’ अवतरित हो गये हैं। बढ़ती बेशुमार जनसंख्या और हर बात के शुद्ध व्यापारीकरण के कारण अब जब सचमुच के काका ही काका ना रहे तो ’डॉक्टर काका’ कहाँ रह पायेंगे? शहरी भाषा में कहें तो उन्हें अब केवल ’मामा’ (बेवकूफ) ही बनाया जा सकता है।

बुखार से पीड़ित रोगी ऑपरेशन के लिए नहीं है। यह बात तय थी, फिर इतनी रात गये मुझे तंग करने का क्या मतलब? कुछ रोष हुआ। सतही तौर पर पूछताछ के इरादे से मैंने पूछा कि इतनी रात गये क्या सिर्फ यही वजह है? तब जोशी महोदय ने कहा कि जिस डॉक्टर को पहले दिखाया था, उन्होंने ’टायफाईड’ बताया और गोलियाँ भी दीं, उस से बुखार तो कम हुआ, पर साँस लेने में तकलीफ़ है, बच्चा ठीक से साँस नहीं ले पा रहा है। मैंने मन ही मन सोचा कि ’टायफाईड’ में आंतों में छिद्र होने का अंदेशा होता है और यदि ऎसा हुआ तो बड़ी तकलीफ़ हो सकती है। कभी-कभी तो तुरंत ऑपरेशन भी करना पड़ता है। इस छोटी सी जानकारी के बूते पर मेरे मन ने उसे ऑपरेशन के योग्य रोगी निश्चित कर लिया और मैं जाने के लिए तैयार हो गया।

जिलों में ’विज़िट’ पर देहातों में जाना मतलब फ़िल्मों के डॉक्टर की तरह एक बैग लेना, जो कोई भी आपसे बड़ी तत्परता से ले लेता है। स्लाईन की बोतलें, उसे चढ़ाने के उपकरण, तुरंत लगाये जाने वाले कुछ इंजेक्शन, यह सब ताम-झाम लेना होता है। ऎसे में कोई ज़्यादा जानकार आपसे यह भी पूछ लेता है कि डॉक्टर साब ग्लूकोज़ लिया या नहीं। किसी भी बीमारी में, डॉक्टर द्वारा रोगी की शिराओं में सिरींज द्वारा ग्लूकोज़ चढा़ते ही चमत्कार हो सकता है तथा रोगी बच भी सकता है। यह विचारधारा वर्षों से गाँव के जन-मानस में रची बसी हुई है, और उन के लिये हम डॉक्टरों का समुदाय ही जवाबदेह है।

मुझे जीप में आगे बिठाकर वे सारे पीछे बैठ गये। करीब आधे घंटे में हम उस देहात में पहुँच गये। जोशी महोदय का घर वहाँ के अच्छे घरों में से एक था। बहुत बड़ा आँगन था, रोगी का पलंग एक कोने में था, जिस के दोनों ओर लोग बैठे हुये थे। तुरंत ही आभास हो गया कि इस में सभी वर्गों के लोग शामिल हैं ।

इतनी भीड़, मैं चौंका! वह भी सुबह ३ बजे, कमाल है। सुनते ही ड्राईवर ने उत्तर दिया, साहब, जोशी बामन बहुत अच्छे व्यक्ति हैं, सब की मदद करते हैं। गरीब, निर्धन व्यक्ति, कृतज्ञता प्रकट करने को किसी भी समय उपस्थित हो सकते हैं, यह उन की संवेदनशीलता है या सरलता है, मैं सोचने लगा।

मेरे आँगन में प्रवेश करते ही सारे लोग उठ कर खड़े हो गये। परेशानी की इस अवस्था में भी डॉक्टरों के प्रति इतनी अपार श्रद्धा देख मेरा मन भर गया। यह रोगी रोग की किस श्रेणी में आता है? मैं जाऊँ, ना जाऊँ, यह सारे प्रश्न मेरे मन में आये थे, जब विज़िट पर चलने का मुझसे निवेदन किया गया था। डॉक्टर की इन के मन में तो अलग-अलग श्रेणी नहीं थी! मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। मन ही मन झुक कर इस समाज को तथा हमारे प्रति इन की श्रद्धा को मैंने शत-शत नमन किया।

गैसबत्ती का तेज उजाला, गोबर से लेपा हुआ स्वच्छ आँगन, एक तरफ अनाज से भरी कोठियाँ और उन के समीप घूँघट को मुँह में दबाये स्त्रियों का समुदाय नि:शब्द बैठा हुआ था।

बंडू के समीप रखी कुर्सी पर मैं बैठ गया। जोशी महोदय और अन्य गाँव के लोगों ने जल्दी-जल्दी रोगी को पहले दिखाये गये डॉक्टरों द्वारा दी गई गोलियों के नुस्ख़े मुझे दिखाये। मैंने बंडू की ओर देखा, एक बीस वर्ष का नौजवान, अत्यंत दुबला, सिर पर मफ़लर, जिस में से ललाट का कुछ भाग दिखाई दे रहा था। मस्तक के नीचे धंसी हुई आँखें, पिचके गाल, शरीर पर ख़ूब मोटा स्वेटर और उतनी ही मोटी खेस, गले तक ओढ़ी हुई थी । ध्यान से देखने पर एक हल्के हाथ से लगाया हुआ एक अंगारे का निशान मस्तक के बीचों बीच नज़र आया।

सारे वातावरण का ऎसा असर हो रहा था कि मैं ख़ुद पर आई अकिंचन जवाबदारी का दबाव महसूस कर रहा था। क्या आँगन में बैठे लोगों के विश्वास को मूर्त रूप दे पाऊँगा? इस विचार से एक बार मैं काँप गया।

मैंने बंडू का मफ़लर, स्वेटर, कुर्ता सब उतरवाया तथा हल्के से उस का हाथ ले कर नब्ज़ देखी। विधिवत तरीके से जाँच की आदत यदि गाँठ बाँध ली जाये तो ऎसी विकट परिस्थिति में भी सब कुछ क्रमवार और ठीक हो सकता है। बार-बार जाँच के इस तरीके का, महत्त्व समझाने वाले मेरे सभी गुरूओं की मुझे अनायास ख़ूब याद आई।

बंडू को बुखार नहीं था, नब्ज़ बराबर चल रही थी। ज़बान पर ख़ूब छाले थे, जैसे ही सीने पर नज़र गई, देखा वह अप्रत्याशित रूप से ऊपर नीचे हो रहा था। अभी तक मैं घर से निकलते वक़्त बंडू को ’टायफाईड’ का मरीज़ मान रहा था और फेफड़ों में छिद्र की वजह से दाह उत्पन्न हुई थी और साँस लेने में तकलीफ़ हो रही थी, ऎसा ही मान कर चल रहा था। फिर पेट की जाँच की, मेरा सारा का सारा अंदाज़ गलत था। स्टेथोस्कोप सीने पर लगाते ही मालूम हो गया कि यह दमा था। फिर मैंने लगातार कई प्रश्न पूछे, उन के उत्तर यूँ मिले कि सब से पहले सर्दी हुई, फिर ख़ूब ज्वर, ज्वर कम ना हुआ तो उसे कम करने को दॊ गई ’क्लोरोमाईसिटीन’ की गोलियाँ, डॉक्टर द्वारा किया ’टायफाईड’ का निदान और फिर श्वास में तकलीफ़। एक डॉक्टर द्वारा बिना मरीज देखे कहना कि ’टायफाईड’ मस्तिष्क में प्रवेश कर चुका है। फिर मुझ से सलाह। घटनाओं का ऎसा अविरल सिलसिला यूँ चला।

मैंने तुरंत इंजेक्शन उबालने को कहा, फिर धमनियों द्वारा उसे बंडू को दिया। इंजेक्शन का असर होते ही उस की श्वास की गति में कमी आई और चेहरे पर राहत के चिन्ह दिखाई देने लगे।

’पूर्वाग्रह’ इस रोग से मैं ग्रसित हो गया था। अब मेरी औषधि से बंडू और उस की बीमारी से ’मेरा रोग’ दोनों ठीक होते दिखाई दे रहे थे।

आँगन में बैठे लोगों की नज़र में अब मेरी छवि एक देवता की थी। महिला समुदाय हल्के किंतु उत्साही स्वर में मेरी स्तुति शुरू कर चुका था। उसी गैस बत्ती के निर्मल उजाले में मैं अब ’हीरो’ बन चुका था। सब लोगों के लिये बाहर चूल्हे पर बड़ी देगची चढ़ाई जा चुकी थी। मैं चाय बनने और पीने के वक़्त तक वहीं रूका रहा। मैंने हाथों के सहारे से बंडू को उठाया, फिर उसे आँगन में भेज, उसे मंजन दे, उसे ख़ुद मंजन करने को कहा। चुल्लू भर भर कर उस ने कुल्ले किये। वह ख़ुद सब कुछ कर पा रहा था इस बात की उसे बेहद ख़ुशी थी। बाकी सारे लोगों की ख़ुशी देखकरे मुझे भी प्रसन्नता हुई। गलत चिकित्सा के कारण बंडू की साधारण सी बीमारी बढ़ गई और बीमारी का गलत निदान उस की अस्वस्थता का कारण बना। सब के साथ चाय पीकर और ’यशस्वी होकर’ मैं घर की ओर लौटने लगा।

पूर्व दिशा में लालिमा छा चुकी थी, सूर्य देव उदय हो रहे थे। क्या किसी डॉक्टर के जीवन में यकायक उदय होने वाली एक ’भोर’ नहीं थी ये?